शिमला समझौते की 5 बड़ी बातें जो आज भी भारत-पाक रिश्तों पर असर डालती हैं/What Is Shimla Agreement In 1972
शिमला समझौता 1972 क्या है?
भारत-पाकिस्तान के इतिहास में कई ऐसे क्षण रहे हैं जो दोनों देशों के आपसी संबंधों को नई दिशा देने वाले साबित हुए। उन्हीं में से एक है शिमला समझौता (Shimla Agreement), जो 1971 के युद्ध के बाद 2 जुलाई 1972 को भारत के हिमाचल प्रदेश स्थित शिमला शहर में हुआ था। यह समझौता भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के बीच हुआ।
इस समझौते का उद्देश्य था कि 1971 के युद्ध के बाद दोनों देशों के संबंधों को सामान्य बनाया जाए और भविष्य में किसी भी विवाद को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाया जाए। यह समझौता केवल एक राजनीतिक दस्तावेज़ नहीं था, बल्कि दो परमाणु शक्ति संपन्न देशों के भविष्य के रिश्तों का खाका भी था।
1971 के युद्ध में पाकिस्तान को करारी हार मिली थी, और उसी के परिणामस्वरूप बांग्लादेश का जन्म हुआ। भारत ने उस युद्ध में रणनीतिक और सैन्य रूप से एक बड़ी जीत हासिल की थी। भारत के पास उस समय 90,000 से अधिक पाकिस्तानी युद्धबंदी थे। शिमला समझौते के ज़रिए इन सभी मुद्दों को हल करने का प्रयास किया गया।
अब आइए विस्तार से जानते हैं उन 5 बड़ी बातों के बारे में जो इस समझौते से जुड़ी हुई हैं और आज भी भारत-पाक संबंधों को प्रभावित करती हैं।
1. केवल द्विपक्षीय वार्ता का सिद्धांत – तीसरे पक्ष की कोई भूमिका नहीं
शिमला समझौते की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि भारत और पाकिस्तान आपसी मुद्दों को केवल द्विपक्षीय वार्ता के माध्यम से ही सुलझाएंगे। यानी कि इन देशों के बीच किसी भी विवाद को किसी तीसरे देश या अंतरराष्ट्रीय संस्था के हस्तक्षेप के बिना हल किया जाएगा।
यह बात आज भी भारत के लिए कूटनीतिक दृष्टिकोण से बहुत उपयोगी है। जब भी पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र, इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) या किसी अन्य अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाने की कोशिश करता है, भारत यह तर्क देता है कि शिमला समझौते के अनुसार यह मुद्दा केवल भारत और पाकिस्तान के बीच का मामला है।
इसका वर्तमान प्रभाव
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पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय समर्थन पाने की रणनीति को झटका लगता है।
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भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दृढ़ता से अपनी बात रखने का आधार मिलता है।
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संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थान भी इस समझौते का हवाला देकर हस्तक्षेप करने से बचते हैं।
2. नियंत्रण रेखा (LoC) की स्थापना और मान्यता
शिमला समझौते से पहले भारत और पाकिस्तान के बीच Ceasefire Line का अस्तित्व था, जो 1949 के युद्धविराम के बाद बनी थी। लेकिन 1971 के युद्ध के बाद इस सीमा को एक नए नाम से पहचान दी गई – Line of Control (LoC)।
इस LoC को दोनों देशों ने स्वीकार तो किया, लेकिन इसे आधिकारिक अंतरराष्ट्रीय सीमा नहीं माना गया। इसके बावजूद, आज LoC ही वह वास्तविक विभाजन रेखा है जो भारत और पाकिस्तान को कश्मीर में अलग करती है।
LoC की अहमियत
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LoC ने दोनों देशों के लिए सीमा निर्धारण की एक स्पष्ट रेखा खींची।
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यह सीमा संघर्षों की स्थिति में सीज़फायर उल्लंघन के लिए मानक बिंदु बन गई।
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भारत अक्सर पाकिस्तान द्वारा LoC उल्लंघन की घटनाओं को शिमला समझौते के उल्लंघन के रूप में प्रस्तुत करता है।
3. युद्धबंदियों की वापसी – मानवीय दृष्टिकोण
1971 के युद्ध के बाद भारत के पास 93,000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिक युद्धबंदी के रूप में थे। यह संख्या इतनी अधिक थी कि यह विश्व युद्धों के बाद सबसे बड़ी युद्धबंदी स्थिति मानी जाती है।
शिमला समझौते के अंतर्गत भारत ने इन सभी सैनिकों को बिना कोई ठोस बदला लिए वापस कर दिया। यह निर्णय भारत के मानवीय दृष्टिकोण और विश्व मंच पर सकारात्मक छवि को दिखाता है।
इसका ऐतिहासिक महत्व
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भारत ने दिखाया कि वह एक ज़िम्मेदार लोकतंत्र है जो मानवाधिकारों का सम्मान करता है।
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लेकिन कई लोग यह मानते हैं कि भारत को इन युद्धबंदियों के बदले पाकिस्तान से ठोस समझौता लेना चाहिए था, जैसे कि पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) पर अधिकार की स्वीकार्यता।
4. कश्मीर मुद्दे पर मौन – एक रणनीतिक चुप्पी
शिमला समझौते में कश्मीर मुद्दे को सीधे तौर पर उल्लेखित नहीं किया गया, लेकिन यह कहा गया कि सभी विवादों का समाधान द्विपक्षीय बातचीत के ज़रिए किया जाएगा। इस लाइन का प्रयोग भारत अक्सर करता है यह साबित करने के लिए कि कश्मीर मुद्दा भारत का आंतरिक मामला है और इसमें बाहरी हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं।
कश्मीर पर चुप्पी क्यों अहम है?
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इससे भारत को कूटनीतिक स्पेस मिलता है कश्मीर पर अंतरराष्ट्रीय दबाव से बचने का।
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पाकिस्तान इस मुद्दे को उठाता रहता है, लेकिन शिमला समझौता उसका विश्वसनीय विरोधाभास बन जाता है।
5. शांति की उम्मीद के बावजूद जारी संघर्ष – समझौता क्यों नहीं टिक पाया?
शिमला समझौता एक शांति और स्थिरता का दस्तावेज़ था, लेकिन इसके बावजूद दोनों देशों के बीच लगातार संघर्ष, आतंकवादी हमले, और सीमा पर तनाव जारी रहा।
बाद के संघर्ष जो शिमला समझौते की भावना के खिलाफ हैं:
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1987: ब्रासटैक्स सैन्य अभ्यास के कारण युद्ध जैसे हालात।
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1999: कारगिल युद्ध, जहाँ पाकिस्तान की सेना ने चुपके से भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की।
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2001: संसद हमला और उसके बाद की सैन्य तैनातियाँ।
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2008: मुंबई आतंकवादी हमला, जिसमें पाकिस्तानी आतंकवादियों का हाथ था।
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लगातार LoC पर सीज़फायर उल्लंघन।
कारण क्या रहे?
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पाकिस्तान में सेना और सरकार के बीच नीतिगत मतभेद।
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आतंकवाद को राज्य प्रायोजित रणनीति के रूप में इस्तेमाल करना।
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राजनीतिक अस्थिरता और कट्टरपंथी विचारधाराओं का प्रभाव।
आज के समय में शिमला समझौते की प्रासंगिकता
आज जब हम 2025 के दौर में खड़े हैं, तो सवाल उठता है – क्या शिमला समझौता अब भी उतना ही उपयोगी है?
उत्तर है: हाँ, लेकिन…
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भारत अभी भी इस समझौते का उपयोग कूटनीतिक हथियार की तरह करता है।
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पाकिस्तान ने भी इसे पूरी तरह खारिज नहीं किया है, लेकिन प्रैक्टिकल तौर पर कई बार उल्लंघन किया है।
इसका मतलब यह है कि यह समझौता आज भी जीवित है, लेकिन उसे नई व्याख्या और नये संदर्भों के अनुसार पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।
भारत और पाकिस्तान की बदलती रणनीतियाँ
भारत की नई नीतियाँ
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सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट एयर स्ट्राइक जैसी सैन्य कार्रवाइयों से यह स्पष्ट हुआ कि भारत अब सिर्फ बातचीत पर निर्भर नहीं है।
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भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की रणनीति अपनाई है।
पाकिस्तान की रणनीति
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पाकिस्तान ने चीन, तुर्की और OIC जैसे देशों से संबंध मज़बूत कर लिए हैं।
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वह कश्मीर मुद्दे को मानवाधिकार उल्लंघन के रूप में पेश करता है।
निष्कर्ष: एक ऐतिहासिक समझौता, जो आज भी जीवित है
शिमला समझौता 1972 केवल एक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया की स्थिरता का स्तंभ रहा है। यह समझौता दिखाता है कि जब दो प्रतिद्वंदी देश संवाद और समझ से काम लें, तो बड़े से बड़े विवाद हल हो सकते हैं।
लेकिन इसके प्रभाव को बनाए रखने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति, ईमानदार प्रयास, और स्थायी नीतियों की ज़रूरत है। शिमला समझौता आज भी कूटनीति, संयम और संवाद की मिसाल है, लेकिन अगर इसे व्यवहार में नहीं उतारा गया, तो यह सिर्फ एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनकर रह जाएगा।
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